100 संस्कृत सूक्तियां हिंदी अर्थ सहित | Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning

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संस्कृत सूक्तियां हिंदी अर्थ सहित (Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning) : Top 100 संस्कृत भाषा की महत्वपूर्ण सूक्तियां हिंदी अनुवाद सहित यहां नीचे दी जा रही है। जो आपके लिए State TET, CTET, TGT, PGT, UGC-NET/JRF, DSSSB, GIC and Degree College Lecturer M.A., B.Ed and Ph.D Entrance Exam आदि सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में उपयोगी साबित होगी। इसमें Popular Sanskrit Proverbs with Hindi Meaning सहित पिछली परीक्षाओं में पूछी गई संस्कृत सूक्तियां का भी समावेश किया गया है। संस्कृत भाषा में सुविचार तथा सूक्तियाँ का सही अर्थ जानकर आप अच्छे नंबर पक्के कर सकते है।


1. अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभ: (वा​ल्मीकि रामायण 6.16.21)
अर्थ– अप्रिय किंतु परिणाम में हितकर हो ऐसी बात कहने और सुनने वाले दुर्लभ होते हैं।

2. 'अतिथि देवो भव' (तैत्तिरीयोपनिषद् 1/11/12)
अर्थ– अतिथि देव स्वरूप होता है।

3. 'अर्थो हि कन्या परकीय एव।' (अभि.शाकुन्तलम्)
अर्थ– कन्या वस्तुत: पराई वस्तु है।

4. 'अहिंसा परमो धर्म:।' (महाभारत-अनुशासनपर्व)
अर्थ– अहिंसा परम धर्म है।

5. 'अहो दुरंता बलवद्विरोधिता।' (किरातार्जुनीयम् 1/23)
अर्थ– बलवान् के साथ किया गया वैर-विरोध होना अनिष्ट अंत है। 


6. 'आचार परमो धर्मः।' (मनुस्मृति 01/108)
अर्थ– आचार ही परम धर्म है।

7. असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय। (बृहदारण्यक-1.3.28)
अर्थ– मुझे असत् से सत् की ओर ले जायें, अंधकार से प्रकार की ओर ले जायें।

8. ''ईशावास्यमिदं सर्वं'' (ईशावास्योपनिषद्-मंत्र 1)
अर्थ– संपूर्ण जगत् के कण-कण में ईश्वर व्याप्त है।

9. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत (कठोपनिषद्)
अर्थ– हे मनुष्य! उठो, जागो और श्रेष्ठ महापुरुषों को पाकर उनके द्वारा परब्रह्म परमेश्वर को जान लो।

10. किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 1/20)
अर्थ– सुन्दर आकृतियों के लिए क्या वस्तु अलंकार नहीं होती है।

11. क्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः। (शिशुपालवधम् 4/17)
अर्थ– जो प्रत्येक क्षण नवीनता को धारण करता है वही रमणीयता का स्वरूप है।

12. जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
अर्थ–
माता-जन्मभूमि और स्वर्ग से भी बड़ी होती है।

13. जीवेम शरद: शतम्। (यजुर्वेद 36/24)
अर्थ– हम सौ वर्ष तक देखने वाले और जीवित रहने वाले हों।

14. तमसो मा ज्योतिर्गमय। (बृहदारण्यक 1.3.28)
अर्थ– अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले जायें।

15. तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते। (रघुवंशम् 11/1)
अर्थ– तेजस्वी पुरुषों की आयु नहीं देखी जाती है।

16. दीर्घसूत्री विनश्यति। (महाभारत शान्तिपर्व 137/1)
अर्थ– प्रत्येक कार्य में अनावश्यक विलंब करने वाला नष्ट होता है।

17. न धर्मवृद्धेषु वयः समीक्ष्यते। (कुमारसम्भवम्– 5/16)
अर्थ– कम उम्र वाले व्यक्ति भी तप के कारण आदरणीय होते हैं।

18. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य। (कठोपनिषद् 1/1/27)
अर्थ– मनुष्य कभी धन से तृत्प नहीं हो सकता।

19. नास्तिको वेदनिन्दकः। (मनुस्मृति 2/11)
अर्थ– वेदों की निन्दा करने वाला नास्तिक है।

20. नास्ति मातृसमो गुरु। (महाभारत अनुशासनपर्व)
अर्थ– भीष्म कहते हैं– माता के समान कोई गुरु नहीं।

21. नास्ति विद्या समं चक्षु। (महाभारत शान्तिपर्व)
अर्थ्– संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है।

22. परोपकाराय सतां विभूतय:। (नीतिशतक)
अर्थ– सज्जनों की विभूति (ऐश्वर्य) परोपकार के लिए है।

23. पदं हि सर्वत्र गुणैर्निधीयते। (रघुवंशम्– 3/62)
अर्थ– गुण ही सर्वत्र शत्रु-मित्रादिकों में पैर को स्थापित करते हैं।

24. प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः। (मुद्राराक्षस/नीतिशतक 2/7)
अर्थ– नीचे लोग विघ्नों के भय से कार्य प्रारंभ ही नहीं करते।

25. मा गृधः कस्यस्विद्धनम् (ईशावास्योपनिषद्)
अर्थ– 'किसी के भी धन का लोभ मत करो।'


26. मा कश्चिद् दुख भागभवेत
अर्थ–
कोई दु:खी न हो।

27. मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत्।
अर्थ–
माता पिता की भली प्रकार से सेवा करनी चाहिये।

28. यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमंते तत्र देवताः (मनुस्मृति)
अर्थ– मनु कहते हैं– जिस कुल में स्त्रियां सम्मानित होती हैं, उस कुल से देवगण प्रसन्न होते हैं।

29. योग: कर्मसु कौशलम् (गीता 2/50)
अर्थ– समत्वरूप योग ही कर्मों में कुशलता है अर्थात् कर्मबंधन से छूटने का उपाय है।

30. लोभः पापस्य कारणम्
अर्थ–
(लालच) लोभ पाप का कारण है।

31. वसुधैव कुटुंबकम
अर्थ–
सम्पूर्ण पृथ्वी एक परिवार है।

32. वाग्भूषणं भूषणम्। (नीतिशतकम्)
अर्थ– वाणी रूपी भूषण (अलड़्कार) ही सदा बना रहता है, कभी नष्ट नहीं होता।

33. विद्या विहीन पशु (नीतिशतकम्)
अर्थ– विद्याविहीन मनुष्य पशु के समान है।

34. विभूषणं मौनमपण्डितानाम् (नीतिशतकम्)
अर्थ– मूर्खों का मौन रहना उनके लिए भूषण (अलड़्ंकार) है।

35. शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् (कुमारसम्भव 5.33)
अर्थ– ब्रह्मचारी शास्त्रोक्तविधिपूर्वक की गई पूजा को स्वीकार करके पार्वती से बोले– 'शरीर धर्म का मुख्य साधन है।'

36. शठे शाठ्यं समाचरेत्। (नीतिशतकम्)
अर्थ– शठ (धूर्त) के साथ शठता करनी चाहिये।

37. शीलं परं भूषणम्। (नीतिशतकम्)
अर्थ– यह शील बड़ा भारी आभूषण है।

38. सहसा विदधीत न क्रियाम्। (किरातार्जुनीयम्)
अर्थ– शत्रुओं के प्रति क्रोध से व्याकुल भीम को शांत करने के लिए युधिष्ठिर ने कहा– कार्य को एकाएक बिना विचार विमर्श किये नहीं प्रारम्भ करना चाहिए।

39. सरस्वती श्रुति महती महीयताम् (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
अर्थ– ज्ञान-गरिष्ठ कवियों की वाणी का पूर्ण सत्कार हो।

40. साहसे श्री प्रतिवसति। (मृच्छकटिकम् अड़्क 4)
अर्थ– शर्विलक का कथन है? साहस में लक्ष्मी निवास करती हैं।

41. स्वभावो दुरतिक्रमः (वाल्मीकि रामायण 6.36.1.)
अर्थ– माल्यवान् की कही हुई हितकर बातों को सुनकर कुपित रावण बोला– 'स्वभाव किसी के लिए भी दुर्लड़्घ्य होता है।

42. सर्वे गुणा कांचनम् आश्रयन्ते। (नीतिशतक)
अर्थ– सोने में ही सब गुण रहते हैं।

43. अप्रार्थितानुकूल: मन्मथ: प्रकटीकरिष्यति। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– बिना प्रार्थना किये ही मेरे प्रति अनुकूल हो जाने वाला कामदेव शीघ्र ही उसे प्रकट कर देगा। ऐसा कादंबरी के अनुराग के कारणों के विषय में चंद्रापीड कहता है।

44. अपुत्राणां न सन्ति लोकाशुभा:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– जिन दंपतियों को पुत्र की प्राप्ति नहीं होती है उन्हें लोक शुभ नहीं होते।

45. अशांतस्य कुत: सुखम्। (श्रीमद्भगवद्गीता– 2/26)
अर्थ– अशांत (शांति रहित) व्यक्ति को सुख कैसे मिल सकता है?

46. आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महानरिपु:। (नीतिशतकम्)
अर्थ– आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला उसी का घोर शत्रु है।

47. अस्यामहं त्वयि च सम्प्रति वीतचिन्त:। (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
अर्थ– कण्व कहते हैं– अब मैं इस वनज्योत्स्ना और तुम्हारे विषय में निश्चिंत हो गया हूं।

48. अनुपयुक्तभूषणोsयं जन:। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क 4)
अर्थ– दोनों सखियां शकुंतला को आभूषण धारण कराते हुए कहती हैं 'हम दोनों आभूषणों के उपयोग से अनभिज्ञ हैं' अत: चित्रावली को देखकर आभूषण पहनाती हैं।

49. 'अतिस्नेह: पापशंकी।' (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-4)
अर्थ– अत्यधिक प्रेम पाप की आशंका उत्पंन करता है।

50. 'अत्यादर: शंकनीय:।' (मुद्राराक्षस अड़्क-1)
अर्थ– अत्यधिक आदर किया जाना शड़्कनीय है।



51. 'अनार्य: परदारव्यवहार:।' (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-7)
अर्थ– परस्त्री के विषय में बात करना अशिष्टता है।

52. अनुलड़्घनीय: सदाचार: (वेणीसंहार अड़्क-5)
अर्थ– सदाचार का उल्लड़्घन नहीं करना चाहिए।

53. 'अनतिक्रमणीयो हि विधि:।' (स्वप्नवासवदत्म्)
अर्थ– भाग्य का उल्लड़्घन नहीं किया जा सकता।

54. आज्ञा गुरुणामविचारणीया। (रघुवंशम् 14/46)
अर्थ– बड़ों की आज्ञा विचारणीय नहीं होती।

55. आचारपूतं पवन: सिषेवे। (रघुवंशम् 02/13)
अर्थ– आचारों से पवित्र राजा दिलीप की सेवा में झरनों के कणों से सि​ञ्चित हवायें संलग्न थीं।

56. आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:। (नैषधीयचरितम्)
अर्थ– कुटिल जनों के प्रति सरलता नीति नहीं होती।

57. अवेहि मां कामुधां प्रसन्नाम्। (रघुवंशम् 02/63)
अर्थ– नन्दिनी गाय राजा से बोली– मैं प्रसन्न हूं वरदान मांगो! मुझे केवल दूध देने वाली गाय न समझो बल्कि प्रसन्न होने पर मुझे अभिलाषाओं को पूरी करने वाली समझो।

58. अनतिक्रमणीया नियतिरिति। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– नियति अतिक्रमणीय होती है अर्थात् होनी नहीं टाला जा सकता।

59. अकारणपक्षपातिनं भवन्तं द्रष्ट्म् इच्छति में हृदयम्। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– केयूरक महाश्वेता का संदेश चंद्रापीड को देते हुए कहता है कि आपके प्रति मेरा स्नेह स्वार्थ रहित है फिर भी आपसे मिलने की उत्कण्ठा हो रही है।

60. अहो मानुषीषु पक्षपात: प्रजापते:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– कादंबरी पत्रलेखा के सौन्दर्य को देखकर कहती है कि ब्रह्मा ने पत्रलेखा के प्रति पक्षपात किया है और उसे गन्धर्वों से भी अधिक सौन्दर्य प्रदान किया है।

61. अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्त्यश्रूणीव लता:। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 4/12)
अर्थ– शकुन्तला के पतिगृह गमन के समय आश्रम में पशु-पक्षी और तरु तलायें भी वियोग पीड़ित हैं। लताओं से पीले पते टूट कर गिर रहे हैं मानो वे आंसू बहा रहे हैं।

62. आलाने गृह्यते हस्ती वाजी वल्गासु गृह्यते। हृदये गृह्यते नारी यदीदं नास्ति गम्यताम्।। (मृच्छकटिकम् 01/50)
अर्थ– हा​थी खंभे से रोका जाता है। घोड़ा लगाम से रोका जाता है, स्त्री हृदय से प्रेम करने से ही वश में की जाती है यदि ऐसा नहीं है तो सीधे अपनी राह नापिये।

63. उत्सवप्रिया: खलु: मनुष्या: (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-6)
अर्थ– मनुष्य उत्सव प्रिय होते हैं।

64. एको रस: करुण एव निमित्तभेदात्। (उत्तररामचरितम्)
अर्थ– एक करुण रस ही कारण भेद से भिन्न होकर अलग-अलग परिणामों को प्राप्त होता है।

65. ओदकान्तं स्निग्धो जनोsनुगन्तव्य:। (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
अर्थ– शार्ड़्गरव कहता है– भगवन्! प्रिय व्यक्ति का जल के किनारे तक अनुगमन करना चाहिए, ऐसी श्रुति है।

66. ऋद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहु:। (रघुवंशम् सर्ग 2/50)
अर्थ– समृद्धशाली राज्य इंद्र के पद स्वर्ग के समान होता है।

67. को नामोष्णोदकेन नवमालिकां सिञ्चति। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-4)
अर्थ– प्रियंवदा कहती है नवमालिका को गर्म जल से कौन सींचना चाहेगा।

68. काले खलु समारब्धा: फलं बध्नन्ति नीतय:। (रघुवंशम् 12/69)
अर्थ– समय पर आरंभ की गयी नीतियां सफल होती हैं।

69. क: कं शक्तो रक्षितुं मृत्युकाले। (स्वप्नवासवदत्तम्)
अर्थ– मृत्यु समीप आ जाने पर कौन किसकी रक्षा कर सकता है।

70. क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढ:। (रघुवंशम् 2/53)
अर्थ– महर्षि वशिष्ठ के प्रभाव से मेरे ऊपर यमराज भी आक्रमण करने में समर्थ नहीं है तो सांसारिक हिंसक पशुओं का तो कहना ही क्या?

71. गरीयषी गुरो: आज्ञा। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– गुरुजनों (बड़ों) की आज्ञा महान् होती है अत: प्रत्येक मनुष्य को उसका पालन करना चाहिए।

72. गुर्वपि विरह दु:खमाशाबन्ध: साहयति। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् 4/16)
अर्थ– अनसूया शकुन्तला से कहती है– आशा का बन्धन विरह के कठोर दु:ख को भी सहन करा देता है।

73. गुणवते कन्यका प्रतिपादनीया। (अभिज्ञान शाकुन्तलम्)
अर्थ– गुणवान् (सुयोग्य) व्यक्ति को कन्या देनी चाहिए। यह माता-पिता का मुख्य विचार होता है।

74. चित्रार्पितारम्भ इवावतस्थे। (रघुवंशम्– 2/31)
अर्थ– चित्र में लिखे हुए बाण निकालने के उद्योग में लगे हुए की भांति हो गया।

75. चक्रारपंक्तिरिव गच्छति भाग्यपंक्ति:। (स्वप्नवासवदत्तम्)
अ​र्थ– समय के क्रम में बदलती हुई संसार में भाग्य पंक्ति पहिए के अरो की तरह चलती है।

76. चारित्र्येण विहीन आढ्योपि च दुगर्तो भवति। (मृच्छकटिकम् 1/43)
अर्थ– चरित्रहीन धनवान् भी दुर्दशा को प्राप्त होता है।

77. छायेव तां भूपतिरन्वगच्छत्। (रघुवंश-2/6)
अर्थ– राजा दिलीप ने नन्दिनी को छाया की भांति अनुसरण किया।

78. छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्। (नीतिशतकम्)
अर्थ– छाया के समान दुर्जनों और सज्जनों की मित्रता होती है।

79. तीर्थोदकंक च वह्निश्च नान्यत: शुद्धिमर्हत:। (उत्तररामचरितम् 1/13)
अर्थ– तीर्थ जल और अग्नि से अन्य पदार्थ से शुद्धि के योग्य नहीं होते हैं।

80. दु:खं न्यासस्य रक्षणम्। (स्वप्नवासवदत्तम् 1/10)
अर्थ– किसी के न्यास अर्थात् धरोहर की रक्षा करना दु:खपूर्ण (दुष्कर) है।

81. दु:खशीले तपस्विजने कोsभ्यर्थ्यताम्? (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-4)
अर्थ– कष्ट सहन करने वाले तपस्वियों में से किससे प्रार्थना करें।

82. दिनक्षपामध्यगतेव संध्या। (रघुवंशम् 2/20)
अर्थ– वह ​नन्दिनी दिन और रात्रि के मध्य संध्या के समान सुशोभित हुई।

83. दैवमविद्वांस: प्रमाणयन्ति। (मुद्राराक्षस अड़्क-3)
अर्थ– मूर्ख व्यक्ति भाग्य को ही प्रमाण मानते हैं।

84. धैर्यधना हि साधव:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– सज्जन लोगों का धैर्य ही धन होता है।

85. धूमाकुलितदृष्टेरपि यजमानस्य पावके एवाहुति: पपिता। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-4)
अर्थ– सौभाग्य से धुएं से व्याकुल दृष्टि वाले यजमान की भी आहुति ठीक अग्नि में ही पड़ी।

86. न खलु धीमतां कश्चिद्विषयों नाम। (अभिज्ञान शाकुन्तलम् अड़्क-4)
अर्थ– शार्ड़्गरव कहता है– विद्वानों के लिए वस्तुत: कोई चीज अज्ञात नहीं होती है।

86. न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिण:। (किरातार्जुनीयम् 1/2)
अर्थ– कल्याण चाहने वाले लोग झूठा प्रिय वचन बोलने की इच्छा नहीं करते हैं।

87. न हि सर्व: सर्वं जानाति। (मुद्राराक्षस अड़्क-1)
अर्थ– सभी लोग सब कुछ नहीं जानते हैं।

88. पयोधरीभूत चतु:समुद्रां, जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम्। (रघुवंशम्– 2/3)
अर्थ– राजा दिलीप ने समुद्र के समान चार थनों वाली नन्दिनी गाय की रक्षा इस प्रकार की जैसे चार थनों के समान चार समुद्रों वाली पृथ्वी ही गाय के रूप में हो।

89. प्राणैरुपक्रोशमलीमसैर्वा। (रघुवंशम्– 2/53)
अर्थ– राजा दिलीप को जब लगा कि नन्दिनी को सिंह से नहीं छुड़ा पायेंगे तो उन्होंने कहा-तब तो मेरा ​क्षत्रियत्व ही नष्ट हो जायेगा क्योंकि क्षत्रियत्व से विपरीत वृत्ति वाले व्यक्ति का राज्य से या निन्दा युक्त मलिन प्राणों से क्या लाभ?

90. पिण्डेष्वनास्था खलु भौतिकेषु। (रघुवंशम् 2/57)
अर्थ– विवेकी लोगों की आस्था नष्ट होने वाले इन भौतिक शरीरों से नहीं है, बल्कि यश रूपी शरीर की रक्षा करने में है।

91. प्रसादचिह्नानि पुर:फलानि। (रघुवंशम् 2/22)
अर्थ– पहले प्रसन्नतासूचक चिन्ह दिखाई पड़ते हैं तदन्तर फल की प्राप्ति होती है।

92. परित्यक्त: कुलकन्यकानां क्रम:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– कादंबरी चंद्रापीड को अपना हृदय समर्पित करके कहती है– कुल कन्याओं की परम्परा रही है कि गुरुजनों की सहमति से ही वे योग्य वर का चुनाव करती हैं। मैंने यह परम्परा तोड़ दी है। यह लज्जा का विषय है।

93. पराभवोsप्युत्सव एव मानिनाम्। (किरातार्जुनीयम् 1/41)
अर्थ– मनस्वी पुरुषों के लिए पराभव भी उत्सव के ही समान है।

94. प्रतिबदध्नाति हि श्रेय: पूज्यपूजाव्यतिक्रम:। (रघुवंशम् 1/79)
अर्थ– वसिष्ठ कहते हैं– पूजनीय की पूजा का उल्लड़्घन कल्याण को रोकता है।

95. बलवता सह को विरोध:। (मृच्छकटिकम् 6/2)
अर्थ– बलशाली के साथा क्या विरोध?

96. बलवती हि भवितव्यता। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– होनहार बलवान् है, जो होना है वह होकर ही रहता है उसे टाला नहीं जा सकता।

97. बलवान् जननीस्नेह:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– माता का स्नेह बलवान् होता है।

98. बहुभाषिण: न श्रद्दधाति लोक:। (कादंबरी/चंद्रापीडकथा)
अर्थ– अधिक बोलने वाले पर लोग श्रद्धा नहीं रखते।

99. भोगीव मन्त्रोषधिरुद्धवीर्य: (रघुवंशम् 2/32)
अर्थ– हाथ के रुक जाने से बढ़े हुए क्रोध वाले, राजा दिलीप, मंत्र और औ​षधि से बांध दिया गया है पराक्रम जिसका, ऐसे सांप की भांति समीप में (स्थित)​ अपराधी को नहीं स्पर्श करते हुए अपने तेज से भीतर जलने लगे।

100. सत्सड़्गति: कथन किं न करोति पुंसाम्। (नीतिशतकम्)
अर्थ– सत्संगति मनुष्यों की कौन-सी भलाई नहीं करती।

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