50+ संत कबीर के दोहे हिंदी अर्थ सहित - Kabir Ke Dohe

Kabir Ke Dohe

संत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। कबीर शब्द अरब भाषा से आया है। अरबी के अल-कबीर का अर्थ होता है- महान। यह इस्लाम में ईश्वर का 37वां नाम है। कबीर हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। भारतीय परंपरा के मुताबिक, कबीर 1398 से लेकर 1518 तक जिए थे। आधुनिक विद्वान उनके जन्म और मृत्यु की तारीख के बारे में निश्चित नहीं हैं। कबीर की माता का नाम नीमा और पिता का नाम नीरू था। वैष्णव संत रामानंद ने कबीर को अपना शिष्य बनाया। कबीर का सबसे महान ग्रन्थ बीजक है। इसमें कबीर के दोहों का संकलन है।

आइये पढ़े, संत कबीर के लोकप्रिय दोहें हिंदी अर्थ सहित–
कबीर का दोहा 1. 
अबुध सुबुध सुत मातु पितु, सबहिं करै प्रतिपाल ।

अपनी ओर निबाहिये, सिख सुत गहि निज चाल ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि मात-पिता निर्बुधि-बुद्धिमान सभी पुत्रों का प्रतिपाल करते हैं। पुत्र कि भांति ही शिष्य को गुरुदेव अपनी मर्यादा की चाल से मिभाते हैं।

कबीर का दोहा 2.
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय ।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय ।।
अर्थ : मन के अहंकार को मिटाकर, ऐसे मीठे और नम्र वचन बोलो, जिससे दुसरे लोग सुखी हों और स्वयं भी सुखी हो।

कबीर का दोहा 3.
कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ।।
अर्थ : कबीर दास जी ने इस दोहे में जीवन में गुरु का क्या महत्व हैं वो बताया हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य तो अँधा हैं सब कुछ गुरु ही बताता हैं अगर ईश्वर नाराज हो जाए तो गुरु एक डोर हैं जो ईश्वर से मिला देती हैं लेकिन अगर गुरु ही नाराज हो जाए तो कोई डोर नही होती जो सहारा दे।

कबीर का दोहा 4.
करै दूरी अज्ञानता, अंजन ज्ञान सुदये ।
बलिहारी वे गुरु की हँस उबारि जु लेय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि ज्ञान का अंजन लगाकर शिष्य के अज्ञान दोष को दूर कर देते हैं। उन गुरुजनों की प्रशंसा है, जो जीवो को भव से बचा लेते हैं।

कबीर का दोहा 5.
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह ।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं जब तक देह है तू दोनों हाथों से दान किए जा। जब देह से प्राण निकल जाएगा। तब न तो यह सुंदर देह बचेगी और न ही तू फिर तेरी देह मिट्टी की मिट्टी में मिल जाएगी और फिर तेरी देह को देह न कहकर शव कहलाएगा।

कबीर का दोहा 6.
कहै कबीर तजि भरत को, नन्हा है कर पीव ।
तजि अहं गुरु चरण गहु, जमसों बाचै जीव ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु-वचनरूपी दूध को पियो । इस प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरणों की शरण ग्रहण करो, तभी जीव से बचेगा।

कबीर का दोहा 7.
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय ।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कुबुद्धि रूपी कीचड़ से शिष्य भरा है, उसे धोने के लिए गुरु का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षण ही में नष्ट कर देते हैं।

कबीर का दोहा 8.
केते पढी गुनि पचि मुए, योग यज्ञ तप लाय ।
बिन सतगुरु पावै नहीं, कोटिन करे उपाय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कितने लोग शास्त्रों को पढ-गुन और योग व्रत करके ज्ञानी बनने का ढोंग करते हैं, परन्तु बिना सतगुरु के ज्ञान एवं शांति नहीं मिलती, चाहे कोई करोडों उपाय करे।

कबीर का दोहा 9.
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय ।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि व्यवहार में भी साधु को गुरु की आज्ञानुसार ही आना जाना चाहिए। सद् गुरु कहते हैं कि संत वही है जो जन्म-मरण से पार होने के लिए साधना करता है।

कबीर का दोहा 10.
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु कुम्हार है और शिष्य घड़ा है, भीतर से हाथ का सहार देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़-गढ़ कर शिष्य की बुराई को निकलते हैं।



कबीर का दोहा 11.
गुरु को सिर राखिये, चलिये आज्ञा माहिं ।
कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहिं ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है किगुरु को अपना सिर मुकुट मानकर, उसकी आज्ञा मैं चलो। कबीर साहिब कहते हैं, ऐसे शिष्य-सेवक को तनों लोकों से भय नहीं है।

कबीर का दोहा 12.
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ।।
अर्थ : कबीर दास ने यहाँ गुरु के स्थान का वर्णन किया हैं वे कहते हैं कि जब गुरु और स्वयं ईश्वर एक साथ हो तब किसका पहले अभिवादन करे अर्थात दोनों में से किसे पहला स्थान दे? इस पर कबीर कहते हैं कि जिस गुरु ने ईश्वर का महत्व सिखाया हैं जिसने ईश्वर से मिलाया हैं वही श्रेष्ठ हैं क्यूंकि उसने ही तुम्हे ईश्वर क्या हैं बताया हैं और उसने ही तुम्हे इस लायक बनाया हैं कि आज तुम ईश्वर के सामने खड़े हो।

कबीर का दोहा 13.
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त ।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु में और पारस-पत्थर में अन्तर है, यह सब सन्त जानते हैं। पारस तो लोहे को सोना ही बनाता है, परन्तु गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।

कबीर का दोहा 14.
गुरु मूरति आगे खड़ी, दुतिया भेद कुछ नाहिं ।
उन्हीं कूं परनाम करि, सकल तिमिर मिटि जाहिं ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु की मूर्ति आगे खड़ी है, उसमें दूसरा भेद कुछ मत मानो। उन्हीं की सेवा बंदगी करो, फिर सब अंधकार मिट जायेगा।

कबीर का दोहा 15.
गुरु मूरति गति चन्द्रमा, सेवक नैन चकोर ।
आठ पहर निरखत रहे, गुरु मूरति की ओर ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु की मूरति चन्द्रमा के समान है और सेवक के नेत्र चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु-मूरति की ओर ही देखते रहो।

कबीर का दोहा 16.
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान ।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि गुरु के समान कोई दाता नहीं, और शिष्य के सदृश याचक नहीं। त्रिलोक की सम्पत्ति से भी बढकर ज्ञान - दान गुरु ने दे दिया।

कबीर का दोहा 17.
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान ।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है किअपने सिर की भेंट देकर गुरु से ज्ञान प्राप्त करो। परन्तु यह सीख न मानकर और तन, धनादि का अभिमान धारण कर कितने ही मूर्ख संसार से बह गये, गुरुपद-पोत में न लगे।

कबीर का दोहा 18.
गुरु सो प्रीतिनिवाहिये, जेहि तत निबहै संत ।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरु कंत ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जैसे बने वैसे गुरु-सन्तो को प्रेम का निर्वाह करो। निकट होते हुआ भी प्रेम बिना वो दूर हैं, और यदि प्रेम है, तो गुरु-स्वामी पास ही हैं।

कबीर का दोहा 19.
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह ।।
अर्थ : कबीर ने अपने इस दोहे में बहुत ही उपयोगी और समझने योग्य बात लिखी हैं कि इस दुनियाँ में जिस व्यक्ति को पाने की इच्छा हैं उसे उस चीज को पाने की ही चिंता हैं, मिल जाने पर उसे खो देने की चिंता हैं वो हर पल बैचेन हैं जिसके पास खोने को कुछ हैं लेकिन इस दुनियाँ में वही खुश हैं जिसके पास कुछ नहीं, उसे खोने का डर नहीं, उसे पाने की चिंता नहीं, ऐसा व्यक्ति ही इस दुनियाँ का राजा हैं।

कबीर का दोहा 20.
जग में युक्ति अनूप है, साधु संग गुरु ज्ञान ।
तामें निपट अनूप है, सतगुरु लगा कान ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि दुखों से छूटने के लिए संसार में उपमारहित युक्ति संतों की संगत और गुरु का ज्ञान है। उसमे अत्यंत उत्तम बात यह है कि सतगुरु के वचनों पार कान दो।



कबीर का दोहा 21.
जनीता बुझा नहीं बुझि, लिया नहीं गौन ।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि विवेकी गुरु से जान-बुझ-समझकर परमार्थ-पथ पर नहीं चला। अंधे को अंधा मिल गया तो मार्ग बताये कौन।

कबीर का दोहा 22.
जाका गुरु है आँधरा, चेला खरा निरंध ।
अन्धे को अन्धा मिला, पड़ा काल के फन्द ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जिसका गुरु ही अविवेकी है उसका शिष्य स्वय महा अविवेकी होगा। अविवेकी शिष्य को अविवेकी गुरु मिल गया, फलतः दोनों कल्पना के हाथ में पड़ गये।

कबीर का दोहा 23.
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान ।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान ।।
अर्थ : किसी भी व्यक्ति की जाति से उसके ज्ञान का बोध नहीं किया जा सकता, किसी सज्जन की सज्नता का अनुमान भी उसकी जाति से नहीं लगाया जा सकता इसलिए किसी से उसकी जाति पूछना व्यर्थ है उसका ज्ञान और व्यवहार ही अनमोल है। जैसे किसी तलवार का अपना महत्व है पर म्यान का कोई महत्व नहीं, म्यान महज़ उसका उपरी आवरण है जैसे जाति मनुष्य का केवल एक शाब्दिक नाम।

कबीर का दोहा 24.
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ ।।
अर्थ : जीवन में जो लोग हमेशा प्रयास करते हैं वो उन्हें जो चाहे वो पा लेते हैं जैसे कोई गोताखोर गहरे पानी में जाता है तो कुछ न कुछ पा ही लेता हैं। लेकिन कुछ लोग गहरे पानी में डूबने के डर से यानी असफल होने के डर से कुछ करते ही नहीं और किनारे पर ही बैठे रहते हैं।

कबीर का दोहा 25.
जेही खोजत ब्रह्मा थके, सुर नर मुनि अरु देव ।
कहैं कबीर सुन साधवा, करू सतगुरु की सेवा ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि जिस मुक्ति को खोजते ब्रह्मा, सुर-नर मुनि और देवता सब थक गये। ऐ सन्तो, उसकी प्राप्ति के लिए सद् गुरु की सेवा करो।

कबीर का दोहा 26.
जो गुरु बसै बनारसी, शीष समुन्दर तीर ।
एक पलक बिखरे नहीं, जो गुण होय शारीर ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि यदि गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो, परन्तु शिष्ये के शारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड भी नहीं भूलेगा।

कबीर का दोहा 27.
ज्ञान समागम प्रेम सुख, दया भक्ति विश्वास ।
गुरु सेवा ते पाइए, सद् गुरु चरण निवास ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि ज्ञान, सन्त-समागम, सबके प्रति प्रेम, निर्वासनिक सुख, दया, भक्ति सत्य-स्वरुप और सद् गुरु की शरण में निवास - ये सब गुरु की सेवा से निलते हैं।

कबीर का दोहा 28.
डूबा औधर न तरै, मोहिं अंदेशा होय ।
लोभ नदी की धार में, कहा पड़ा नर सोय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कुधर में डूबा हुआ मनुष्य बचता नहीं । मुझे तो यह अंदेशा है कि लोभ की नदी-धारा में ऐ मनुष्यों तुम कहां पड़े सोते हो।

कबीर का दोहा 29.
तबही गुरु प्रिय बैन कहि, शीष बढ़ी चित प्रीत ।
ते कहिये गुरु सनमुखां, कबहूँ न दीजै पीठ ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि शिष्य के मन में बढ़ी हुई प्रीति देखकर ही गुरु मोक्षोपदेश करते हैं। अतः गुरु के समुख रहो, कभी विमुख मत बनो।

कबीर का दोहा 30.
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ।।
अर्थ : कबीर दास कहते हैं जैसे धरती पर पड़ा तिनका आपको कभी कोई कष्ट नहीं पहुँचाता लेकिन जब वही तिनका उड़ कर आँख में चला जाये तो बहुत कष्टदायी हो जाता हैं अर्थात जीवन के क्षेत्र में किसी को भी तुच्छ अथवा कमजोर समझने की गलती ना करे जीवन के क्षेत्र में कब कौन क्या कर जाये कहा नहीं जा सकता।

कबीर का दोहा 31.
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर ।
अपनी आखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि धर्म (परोपकार, दान सेवा) करने से धन नहीं घटना, देखो नदी सदैव बहती रहती है, परन्तु उसका जल घटता नहीं। धर्म करके स्वयं देख लो।

कबीर का दोहा 32.
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि इस दुनियाँ में जो भी करना चाहते हो वो धीरे-धीरे होता हैं अर्थात कर्म के बाद फल क्षणों में नहीं मिलता जैसे एक माली किसी पौधे को जब तक सो घड़े पानी नहीं देता तब तक ऋतू में फल नही आता। धीरज ही जीवन का आधार हैं, जीवन के हर दौर में धीरज का होना जरुरी है फिर वह विद्यार्थी जीवन हो, वैवाहिक जीवन हो या व्यापारिक जीवन।

कबीर का दोहा 33.
पंडित यदि पढि गुनि मुये, गुरु बिना मिलै न ज्ञान ।
ज्ञान बिना नहिं मुक्ति है, सत्त शब्द परमान ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि बड़े-बड़े विद्व।न शास्त्रों को पढ-गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते हैं, परन्तु गुरु के बिना उन्हें ज्ञान नही मिलता। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती।

कबीर का दोहा 34.
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।
अर्थ : उच्च ज्ञान प्राप्त करने पर भी हर कोई विद्वान् नहीं हो जाता। अक्षर ज्ञान होने के बाद भी अगर उसका महत्त्व ना जान पाए, ज्ञान की करुणा को जो जीवन में न उतार पाए तो वो अज्ञानी ही है लेकिन जो प्रेम के ज्ञान को जान गया, जिसने प्यार की भाषा को अपना लिया वह बिना अक्षर ज्ञान के विद्वान हो जाता है।

कबीर का दोहा 35.
बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर ।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ।।
अर्थ : कबीरदास जी ने बहुत ही अनमोल शब्द कहे हैं कि यूँही बड़ा कद होने से कुछ नहीं होता क्यूंकि बड़ा तो खजूर का पेड़ भी हैं लेकिन उसकी छाया राहगीर को दो पल का सुकून नही दे सकती और उसके फल इतने दूर हैं कि उन तक आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता। इसलिए कबीर दास जी कहते हैं ऐसे बड़े होने का कोई फायदा नहीं, दिल से और कर्मो से जो बड़ा होता हैं वही सच्चा बड़प्पन कहलाता हैं।

कबीर का दोहा 36.
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।
अर्थ : जब मेने इन संसार में बुराई को ढूढा तब मुझे कोई बुरा नहीं मिला जब मेने खुद का विचार किया तो मुझसे बड़ी बुराई नहीं मिली। दुसरो में अच्छा बुरा देखने वाला व्यक्ति सदैव खुद को नहीं जनता। जो दुसरो में बुराई ढूंढते है वास्तव में वहीँ सबसे बड़ी बुराई है।

कबीर का दोहा 37.
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि ।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि ।।
अर्थ : जिसे बोल का महत्व पता है वह बिना शब्दों को तोले नहीं बोलता। कहते है कि कमान से छुटा तीर और मुंह से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते इसलिए इन्हें बिना सोचे-समझे इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। जीवन में वक्त बीत जाता है पर शब्दों के बाण जीवन को रोक देते है। इसलिए वाणि में नियंत्रण और मिठास का होना जरुरी है।

कबीर का दोहा 38.
मनहिं दिया निज सब दिया, मन से संग शरीर ।
अब देवे को क्या रहा, यो कथि कहहिं कबीर ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि यदि अपना मन तूने गुरु को दे दिया तो जानो सब दे दिया, क्योंकि मन के साथ ही शरीर है, वह अपने आप समर्पित हो गया। अब देने को रहा ही क्या है।

कबीर का दोहा 39.
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ।।
अर्थ : बहुत ही बड़ी बात को कबीर दास जी ने बड़ी सहजता से कहा दिया। उन्होंने कुम्हार और उसकी कला को लेकर कहा हैं कि मिट्टी एक दिन कुम्हार से कहती हैं कि तू क्या मुझे कूट कूट कर आकार दे रहा हैं एक दिन आएगा जब तू खुद मुझ में मिल कर निराकार हो जायेगा अर्थात कितना भी कर्मकांड कर लो एक दिन मिट्टी में ही समाना हैं।

कबीर का दोहा 40.
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ।।
अर्थ : कविवर कबीरदास कहते हैं मनुष्य की इच्छा, उसका एश्वर्य अर्थात धन सब कुछ नष्ट होता हैं यहाँ तक की शरीर भी नष्ट हो जाता हैं लेकिन फिर भी आशा और भोग की आस नहीं मरती।

कबीर का दोहा 41.
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर ।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं कि लोग सदियों तक मन की शांति के लिये माला हाथ में लेकर ईश्वर की भक्ति करते हैं लेकिन फिर भी उनका मन शांत नहीं होता इसलिये कवी कबीर दास कहते हैं। हे मनुष्य इस माला को जप कर मन की शांति ढूंढने के बजाय तू दो पल अपने मन को टटौल, उसकी सुन देख तुझे अपने आप ही शांति महसूस होने लगेगी।

कबीर का दोहा 42.
यह सतगुरु उपदेश है, जो माने परतीत ।
करम भरम सब त्यागि के, चलै सो भव जलजीत ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि यही सतगुरु का यथार्थ उपदेश है, यदि मन विश्वास करे, सतगुरु उपदेशानुसार चलने वाला करम भ्रम त्याग कर, संसार सागर से तर जाता है।

कबीर का दोहा 43.
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत ।
गुरु चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत ।।
अर्थ : इस संसार का झमेला दो दिन का है अतः इससे मोह सम्बन्ध न जोड़ो। सद्गुरु के चरणों में मन लगाओ, जो पूर्ण सुखज देने वाले हैं।

कबीर का दोहा 44.
राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट ।
कहै कबीर क्यों उबरै, काल कठिन की चोट ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि कोई राजा के घर से चोरी करके दरिद्र की शरण लेकर बचना चाहे तो कैसे बचेगा| इसी प्रकार सद् गुरु से मुख छिपाकर, और कल्पित देवी-देवतओं की शरण लेकर कल्पना की कठिन चोट से जीव कैसे बचेगा।

कबीर का दोहा 45.
सतगुरु खोजे संत, जीव काज को चाहहु ।
मेटो भव के अंक, आवा गवन निवारहु ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि ऐ संतों, यदि अपने जीवन का कल्याण चाहो, तो सतगुरु की खोज करो और भव के अंक अर्थात छाप, दाग या पाप मिटाकर, जन्म-मरण से रहित हो जाओ।

कबीर का दोहा 46.
सतगुरु तो सतभाव है, जो अस भेद बताय ।
धन्य शिष धन भाग तिहि, जो ऐसी सुधि पाय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि सद् गुरु सत्ये-भाव का भेद बताने वाला है। वह शिष्य धन्य है तथा उसका भाग्य भी धन्य है जो गुरु के द्वारा अपने स्वरुप की सुधि पा गया है।

कबीर का दोहा 47.
सतगुरु मिला जु जानिये, ज्ञान उजाला होय ।
भ्रम का भाँडा तोड़ी करि, रहै निराला होय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि सद् गुरु मिल गये। यह बात तब जाने जानो, जब तुम्हारे हिर्दे में ज्ञान का प्रकाश हो जाये, भ्रम का भंडा फोडकर निराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये।

कबीर का दोहा 48.
सतगुरु सम कोई नहीं, सात दीप नौ खण्ड ।
तीन लोक न पाइये, अरु इकइस ब्रह्मणड ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि सात द्वीप, नौ खण्ड, तीन लोक, इक्कीस ब्रह्मणडो में सद् गुरु के समान हितकारी आप किसी को नहीं पायेंगे।

कबीर का दोहा 49.
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय ।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि सब पृथ्वी को कागज, सब जंगल को कलम, सातों समुद्रों को स्याही बनाकर लिखने पर भी गुरु के गुण नहीं लिखे जा सकते।

कबीर का दोहा 50.
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ।।
अर्थ : कबीर दास कहते हैं कि प्रभु इतनी कृपा करना कि जिसमे मेरा परिवार सुख से रहे और ना मै भूखा रहू और न ही कोई सदाचारी मनुष्य भी भूखा ना सोये। यहाँ कवी ने परिवार में संसार की इच्छा रखी हैं।

कबीर का दोहा 51.
साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस नहिं, क्यों कर ऊजल होय ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है कि साबुन बेचारा क्या करे,जब उसे गांठ में बांध रखा है। जल से स्पर्श करता ही नहीं फिर कपडा कैसे उज्जवल हो। भाव-ज्ञान की वाणी तो कंठ कर ली, परन्तु विचार नहीं करता, तो मन कैसे शुद्ध हो।

कबीर का दोहा 52.
सुख में सुमिरन सब करै दुख में करै न कोई ।
जो दुख में सुमिरन करै तो दुख काहे होई ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते हैं जब मनुष्य जीवन में सुख आता हैं तब वो ईश्वर को याद नहीं करता लेकिन जैसे ही दुःख आता हैं वो दौड़ा दौड़ा ईश्वर के चरणों में आ जाता हैं फिर आप ही बताये कि ऐसे भक्त की पीड़ा को कौन सुनेगा?

कबीर का दोहा 53.
सोई सोई नाच नचाइये, जेहि निबहे गुरु प्रेम ।
कहै कबीर गुरु प्रेम बिन, कितहुं कुशल नहिं क्षेम ।।
अर्थ : कबीर दास जी कहते है किअपने मन-इन्द्रियों को उसी चाल में चलाओ, जिससे गुरु के प्रति प्रेम बढता जये। कबीर साहिब कहते हैं कि गुरु के प्रेम बिन, कहीं कुशलक्षेम नहीं है।

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